मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

निवेदन

कठोपनिषद् दिव्यामृत 01
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कठोपनिषद् दिव्यामृत

लेखक - शिवानन्द

निवेदन

प्रत्येक युग की अपनी कुछ विशेषताएं और अपनी कुछ पहचान होती हैं। स्वाधीनता प्राप्त होने उपरान्त लगभग पांच दशकों के कालखण्ड में भारत की अनेक क्षेत्रों में प्रगति हुई तथा सम्पूर्ण समाज में एक सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना की लहर का आविर्भाव हुआ और विश्व में भारत को एक सम्मानपूर्ण स्थान भी प्राप्त हुआ किन्तु देश दिशाहीन होकर अपनी सांस्कृति मूलधारा से भटक गया तथा विघटन एवं अराजकताके कगार पर पहुंच गया। राजनीतिक क्षेत्र में विचारभ्रष्टता, मूल्यहीनता, सिद्धान्तहीनता, कुटिलता और चारित्रिक संकट का वातावरण व्याप्त हो गया। मूल्यों और सिद्धान्तों का स्थान अवसरवादिता और षड्यंत्रों ने ले लिया।'सत्यमेव जयते' का उदघोष अर्थहीन हो गया। राजनेताओं द्वारा पोषित संरक्षित एवं समाश्रित अपराधी तत्त्वों ने हिंसा और अपहरण की घटनाआं को सामान्य बना दिया तथा जनजीवन अस्तव्यस्त हो गया और सारी व्यवस्था लड़खड़ा गई। इस कालखण्ड मे मानों उलटी गिनती प्रारंभ होने लगी।

सामाजिक न्याय तथा सामाजिक समरसत्ता के नए-नए लुभावने मंत्र देनेवाले चतुर नेताओ ने सत्ता को पकड़े रहने के ऐसे विभाजनकारी समीकरण बनाए और ऐसी छलपूर्ण रचना की कि जिस समाज को स्वाधीनता संग्राम के आत्मबलिदानी नेताओं ने एकता और अखण्डता के सूत्र में ग्रथित किया था, उसमें धर्म, सम्प्रदाय, जाति, भाषा और क्षेत्र के आधार पर विषमता और विघटन तीब्र हो गए। राष्ट्रीय भावना विलुप्त होने लगी और परस्पर घृणा एवं विद्वेष ने सामाजिक जीवन को विषाक्त कर दिया। सामाजिक न्याय की अवर्ण सवर्ण आदि की विभेदकारी परिकल्पना अमानवीय है तथा भारतीय संस्कृति के प्रतिकूल है। एक ओर कुछ व्यक्तियों के पास धन-सम्पत्ति और विलासिता की सामग्री के अकल्पनीय अम्बार लग गए तथा दूसरी ओर गरीबी की रेखा से नीचे के चालीस प्रतिशत से अधिक दीन-हीन जन की दुर्दशा में कोई सुधार नहीं हुआ। नगरों मे कूड़े के गन्दे ढेरों पर जहां एक ओर गौ, श्वान, शूकर आदि भूखे पशु भोजन की खोज करते हैं, वहां उनके पास ही अनेक बालक-बालिकाएं तथा वृद्ध-वृद्धाएं भी गन्दे और फटे चीथड़ो से किसी प्रकार तन को ढॉँपे हुए, कागज पन्नी आदि बटोरने के लिए मानो अभिशप्त हैं। अगणित वेरोजगार युवक अवसाद और आत्मग्लानि के कारण मृत्यु-आलिंगन के लिए विवश हो जाते हैं और अगणित वेसहारा युवतियों की, अपना तन और ईमान वेचने एवं अकल्पनीय संत्रास को मूकवत् भोगने की मानों नियति ही है। संवेदशीलता और मानवीयता शब्दकोशों से के ऐसे शब्द है, जिनका भरपूर दुरुपयोग होता है। तथा जिनका अर्थ लुप्त् हो गया है। गरीबों के नए मसीहा तथा सामाजिक न्याय के भाषणपटु प्रवक्ता यथार्थ की भूमि से बहुत दूर हैं। हम इस सन्दर्भ में अदूरदर्शी दूरदर्शन के कामवासना एवं हिंसा के उत्तेजक कार्यक्रमों के दुष्प्रभाव का उल्लेख किए बिना नहीं रह सकते मीठा विषपान सामान्य जनजीवन को दुर्गति की ओर जे जा रहा है तथा कामुकता एवं हिंसा की घटनाओं में बृद्धि हो रही है। यह हमारे नितान्त भौतिकवादी एवं भोगवादी युग का यर्थाथ।

इस अन्धकार और भटकाव के युग में स्वाध्याय, चिन्तन और विचार का संकट सर्वाधिक शोचनीय है। गंभीर साहित्य् क्े लिए रुचि और अवकाश न होना व्यक्ति एवं समाज के लिए गहन चिन्ता का विषय है। उदात्त साहित्य् के सृजन तथा पठन-पाठन में ह्रास होता जा रहा है। वास्तव में किसी समाज में प्रगति की पहचान उसकी नारियों बच्चों और मूक पशु- पक्षियों के प्रति व्यवहार से, दीन जन के अभ्यूदय के लिए शिक्षा आदि की व्यवस्था होने से तथा उसके साहित्य के स्तर से होती है। यह भी एक तथ्य है कि राजनेताओं का दायित्व समग्र समाज के उत्थान के प्रति होता है, न कि कुछ विशेष बर्गो के प्रति ही। उनके व्यक्तिगत जीवन में सादगी सच्चाई और ईमानदारी होने पर हीवे प्रभावी हो सकते हैं। जब बड़े नेता रोगों की चिकित्सा के लिए बार-बार विदेश जाते हो तथा सामान्य जन को चिकित्सा-सुविधा उपलब्ध न होती हो, नेताओं के घरों में विलासिता हो तथा सामान्य जन मात्रजीवन-रक्षा के लिए भी संघर्ष करते हों, नेताओं की रक्षा के लिए विशेष सुरक्षा-व्यवस्था हो तथा सामान्य जन को अपराधी दिन-रात उत्पीडित करते हों, तो क्या वह सच्चा लोकतंत्र हो सकता है? एक ओर जहां जनसंख्या के अनुपात के अनुसार शासन में भागीदारी और नौकरियों में वरीयता दी जाती हो, वहां राष्ट्रीयता का क्या महत्त्व है? इस युग में नेताओं का ऐसा आतंक है तथा सामान्यजन इतने भीरु हो गए हैं कि सत्य को कहना ही नहीं, सुनना भी दुश्वार हो गया है।'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' मात्र सारहीन शब्द हैं। राजनेता कानूनों की तोड़-मरोड सत्ता को पकड़े रहने की दृष्टि से कर देते हैं तथा साधारण नागरकि बेबस हो गया है। यह लोकतंत्र का दुरुपयोग है। जब भीड़ में सब अपनी अपनी स्वार्थपूर्ति और सुरक्षा का ही यत्न करते हों तो दिशा कौन देगा?

धर्म रक्षा करता है तथा जनसमाज को परस्पर जोड़ता है। इस युग में धम्र के क्षेत्र में धर्मगुरुओं और प्रवचनों की मानों बाढ ही आ गयी है बाढ में स्वच्छ जल नहीं आता। विवेकी जन गंगा के प्रदूषित जल का आचमन भी नहीं करते। इस अन्धकार युग में स्वयंभू धर्मगुरुओं की पहचान उनके तप सात्तिवकता और अन्त: प्रबोध एवं दिव्यानुभूति से न होकर उनके वाग्जाल देश विदेश में फैले हुए विशल आश्रमों और शिष्यों एवं अनुयायियों की संख्या से हो रही है। भारत में वर्तमान युग में छद्म अवतारों कल्कि भगवानों जगदगुरुओं चमत्कारी योगियों एवं तथाकथित सिद्धपुरुषों की संख्या इतनी अधिक हो गई है कि उनकी गणना करना भी संभव नहीं है। उनमें तप तेज स्वाध्याय साधना और अन्त: प्रबोध का नितान्त अभाव है तथा उन्होने व्यवसायियों की भांति कुण्डलिनी-जागरण इत्यादि के प्रपंच आैर प्रचार का सहारा ले लिया है। वड़े-बड़े नेता और उधोगपति उन्हें महानता का प्रमाण पत्र् दे देते है। उनमें से अनेक अपराधों में लिप्त हो रहे है। इसके अतिरिक्त वाक्पटु भविष्यवक्ताओं और सम्मोहन में कुशल तान्त्रिको के धंधे भी पर्याप्त पनप रहे हैं। इस युग में धन तथा सत्ता को किसी प्रकार प्राप्त करना तथा उन्हें बलपूर्वक् पकड़े रहना युगधर्म हो गय है तथा यही समस्त भटकाव अशान्ति और अराजकता का प्रधान कारण है। लोकतंत्र का अर्थ लूटतंत्र हो गया है।

किन्तु सात्तिवकता एवं आध्यात्मिकता की धारा क्षीण होने पर भी सदैव अक्षुण्ण रहती है। सच्चे साधकों सिद्धपुरुषों औश्र सदगुरुओं की परम्परा कभी विलुप्त नहीं होती। प्रपंच्च और पाखण्ड से दूर रहकर, वे प्रकाशदीप को कभी बुझने नहीं देते तथा उसे सदा प्रज्वलित रखते हैं। वे किसी पर निर्भर नहीं होते तथा निर्भय रहते हैं। उनका न कोई सिंहासन (गद्दी) होता है, न वे किसी को उसे सौंपकर जाते है। अपने भीतर आध्यात्मिक प्रकाश का अनुभव करना तथा सहजभाव से उसका प्रसार करना ही उनका एक मात्र उद्देश्य होता है। वे संसार में रहकर जल में कमल की भांति निर्लिप्त रहते हैं।

वास्त्व में सत्य् ही धर्म होता है। सत्य सर्वोपरि होता है तथा वह विविध धर्मो कीसीमा में बांधा नही जा सकता। जो धर्मगुरु संबाद को त्यागकर दुराग्रहकरते है।, वे सत्य से दूर रहते हैं। जो धर्मगुरु बलपूर्वक यह कहते हैं कि केवल उनके धर्म के अनुयायी ही स्वर्ग के अधिकारी हैं, शेष नहीं, वे सत्य के विरोधी हैं। एक ओर श्रेष्ठ धर्मगुरु मनुष्य को परमात्मा की ओर प्रवृत्त करते हैं तथा दूसरी ओर वे लोक में श्रेष्ठ जीवन-यापन की कला सिखाते हैं। धर्म का उद्देश्य एक ही होता है-परमात्मा की प्राप्ति तथा सच्चाई और प्रेम से समाज मे सार्थक जीवन-यापन की प्रेरणा देना। धर्मो के वे अंश, जो परस्पर घृणा और हिंसा (पशुबलि, विधर्मी का नाश) कीशिक्षा देते हों, त्याज्य हैं। दुराग्रह से ग्रस्त होना तथा अपनी श्रेष्ठता के दंभ के कारण भेदभाव और घृणा सिखाना एक दोष है। परमात्मा की प्राप्ति के अनेक मार्ग होते हैं। तथा उपासना पद्धतियां भी भिन्न हो सकती हैं, ऐसा स्वीकार करने पर ही सर्वधर्म-समभाव संभव हो सकता है। परस्पर संवाद द्वारा सह-अस्तित्व एवं शान्ति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।

हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि धर्म और विज्ञान परस्पर विरोधी नहीं हैं, बल्कि परस्पर पूरक हैं। दोनों का उद्देश्य सत्य की खोज करना है, किन्तु विज्ञान भौतिक जगत की भौतिक सीमाओं सेपरे नहीं जा सकता तथा उत्तम धर्म भौतिक जगत की सीमाओं को पार करके सूक्ष्म जगत में प्रवेश द्वारा सृष्टि के मूल रहस्यों की खोज कर सकता है। धर्म एकांगी नहीं होता, उसमें समग्रता होती है, परिपूर्णता होती है। सच तो यह है कि जहां विज्ञान की सीमा समाप्त हो जाती है, धर्म का क्षेत्र प्रारंभ होता है।

धर्म का ध्येय सत्य की उपलब्धि एवं अनुभूति कराना होता है। जो आस्था सत्य पर आधारित नहीं होती, वह दोषपूर्ण होती है। सत्य की खोज करनेवाले अथवा सत्यनिष्ठ पुरुष कदापि दुराग्रह नहीं करते। धर्म जोड़ता, तोड़ता नहीं है। धार्मिक व्यक्ति आध्यात्मिक अर्थात आत्मा की ओर अभिमुख होते हैं वे अनेकता मे एकता का अनुभव करते हैं तथा प्रेम सहयोग एवं सेवा के आदर्श का अनुपालन भी करते हैं। वास्तव में कोई भी धर्म घृणा एवं वैर की शिक्षा नहीं देता, किन्तु कट्टर पंथी लोग संकीर्णता के कारण घृणा और वैर का प्रचार करते हैं। पवित्रता की आड़ लेकर किसी व्यक्ति या वर्ग को महान ग्रन्थों तथा ज्ञान से वंचित नहीं किया जा सकता। सभी परमात्मा तथा ज्ञान की प्राप्ति के लिए समान रुप से अधिकारी हैं।

इस सन्दर्भ में यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि भारत की आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत क्या है? भारतीय संस्कृति के मूलतत्त्व क्या है? मूल की रक्षा करने से ही सम्पूर्ण वृक्ष की तथा उसके अंगों (पुष्पों, फल्ज्ञै। इत्यादि) की सुरक्षा होना संभव होता है। अत: महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि व्यक्ति और समाज के कल्याण का मार्ग कैसे प्रशस्त हो सकता है।

काल का प्रवाह अनन्त होता है तथा विकास की प्रक्रिया भी अनन्त होती है। व्यक्तिएंव समाज के दोष तथा अपराध और अज्ञान विकास-प्रक्रिया की गति को सदा के लिए अवरुद्ध नहीं कर सकते। प्रकृति एक सूक्ष्म एवं दिव्य सत्ता से संचालित होने के कारण, ज्ञात एवं अज्ञात बलों के द्वारा व्यक्तिएवं समाज को एक उच्चतर दिशा में मानो धकेलती रहती है। प्रकृति असत्य से सत्य की ओर अंधकर से प्रकाश की ओर बरबस ले जाती है। जलराशि के मध्य में स्थित भंवर में फंसी हुई वस्तु को, पीछे से आनेवाला प्रबल प्रवाह बाहर निकालकर आगे की ओर बढा देता है विकास-प्रक्रिया में स्थायी रुप से पीछे की ओर जाना संभव नहीं होता। लम्बी दौड़ में धावक पीछे दूर तक जाकर ही तीब्र गति से आगे की ओर दौड़ता है। विनाश भी नवसृजन एवं विकास का आधार होता है। घोर –अंधकार प्रकाश की गति को कदापि अपरुद्ध नही कर सकता। हम पुन: उठने और आगे बढने के लिए ही गिरते हैं। हमारी संघर्षशीलता कभी विलुप्त नहीं होती। विचारो का विरोध एवं टकराहट भी श्रेष्ठ दिशा में बढने के लिए आवश्यक भूमिका बन जाते हैं। विरोध के स्वर भी अन्तत: समन्वय एवं प्रगति की प्रक्रिया को तीव्र कर देते है। घृणा के मध्य से प्रे का स्त्रोत अन्धकार के गट्ठर से प्रकाश की किरण और निराशा के तल से आशा की ज्योति प्रस्फुटित होते हैं। बुद्धिमान मनुष्य् का कर्तव्य है कि वह प्रकृति के ससात्त्विक बलो के साथ विवेकपूर्ण संबद्ध होकर तथा अपनी सामर्थ्य के अनुसार यथासंभव योगदान देकर जीवन को कृतार्थ कर ले

जो विवेकशील पुरुष ऋषियों के कालजयी तत्त्व-चिन्तन की परम्परा के साथ अन्तर्तमनाता स्थापित कर लेता है और सन्त्-महात्माओं के सन्देशों एवं मनीषियों के मन्तव्यों से अवगत हो जाता है तथा लोक में जन-जीन को भी संबेदनशील होकर जान लेता है, वह भारत की आत्मा को समझसकता है तथा वह विश्व के कल्या का मार्ग प्रशस्त करने में सक्षम हो जाता है और उसका जीवन भी धन्य हो जाता है। १

आध्यत्मिक ज्ञान एवं मीमांसा की दृष्टि से उपनिषद् संसार के सर्वोच्च ग्रन्थ हैं। हमारा प्रकल्प सभी प्रमुख उपनिषदों के सरल, सुबोध, बुद्धिग्राह्य एवं विज्ञानसम्मत व्याख्यात्मक भाष्यों की रचना करना हैं। सुधीजन प्रचार-प्रसार में यथाशक्ति सहयोग देकर पुण्य के भागी हो सकते हैं। (हमारे शब्दार्थ, अन्वय और भावार्थ सुचिन्तित एवं सुनिश्चित हैं और हमारा अनेक स्थानों पर अनेक व्याख्याताओं से मतैक्य् नहीं है।

१. इसी उद्देश्य से एक भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति शोध-संस्थान की स्थापना होना आवश्यक है, जहां भारतीय मूल के धर्मों की पुनर्व्याख्या हो सके तथा उनकी एकता के सूत्रों की खोज हो सके और संसार के सभी अन्य धर्मों के साथ समन्वय होना भी संभव होसके, जिससे भारत के प्रेम एंव शान्ति के कल्याणकारी सन्देश को विश्व में प्रसारित किया जा सके।

एक व्याख्याता ने अंग्रेजी भाषा में प्रवचन करते हुए कठोपनिषद् के कुछ मंत्रों को प्रक्षिप्त ही कह दिया, जब कि पूज्य शंक्कराचार्य से लेकर विवेकानन्द आदि तक सबने उन्हें मान्य किया है। यह उपहसनीय ही है। हम आशा करते हैं कि सुधी पाठक उदारतापूर्वक प्रस्तुत रचना का स्वागत करेंगे।

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