सोमवार, 25 अगस्त 2008

गणपति अथर्वशीर्ष

गणपत्यथर्वशीर्ष
July 22, 2008 – 5:01 pm
॥ श्री गणपत्यथर्वशीर्ष ॥॥ शान्ति पाठ ॥ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ॥ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः । स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ॐ तन्मामवतु तद् वक्तारमवतु अवतु माम् अवतु वक्तारम्ॐ शांतिः । शांतिः ॥ शांतिः॥।॥ उपनिषत् ॥॥हरिः ॐ नमस्ते गणपतये ॥त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि। त्वमेव केवलं कर्ताऽसि। त्वमेव केवलं धर्ताऽसि। त्वमेव केवलं हर्ताऽसि। त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि। त्वं साक्षादात्माऽसि नित्यम् ॥ १॥गणपति को नमस्कार है, तुम्हीं प्रत्यक्ष तत्त्व हो, तुम्हीं केवल कर्त्ता, तुम्हीं केवल धारणकर्ता और तुम्हीं केवल संहारकर्ता हो, तुम्हीं केवल समस्त विश्वरुप ब्रह्म हो और तुम्हीं साक्षात् नित्य आत्मा हो।
॥ स्वरूप तत्त्व ॥ऋतं वच्मि (वदिष्यामि)॥ सत्यं वच्मि (वदिष्यामि)॥ २॥यथार्थ कहता हूँ। सत्य कहता हूँ।
अव त्वं माम् । अव वक्तारम् । अव श्रोतारम् । अव दातारम् । अव धातारम् । अवानूचानमव शिष्यम् । अव पश्चात्तात् । अव पुरस्तात् । अवोत्तरात्तात् । अव दक्षिणात्तात् । अव चोर्ध्वात्तात्। अवाधरात्तात्। सर्वतो मां पाहि पाहि समंतात् ॥३॥तुम मेरी रक्षा करो। वक्ता की रक्षा करो। श्रोता की रक्षा करो। दाता की रक्षा करो। धाता की रक्षा करो। षडंग वेदविद् आचार्य की रक्षा करो। शिष्य रक्षा करो। पीछे से रक्षा करो। आगे से रक्षा करो। उत्तर (वाम भाग) की रक्षा करो। दक्षिण भाग की रक्षा करो। ऊपर से रक्षा करो। नीचे की ओर से रक्षा करो। सर्वतोभाव से मेरी रक्षा करो। सब दिशाओं से मेरी रक्षा करो। त्वं वाङ्ग्मयस्त्वं चिन्मयः। त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममयः। त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥४॥तुम वाङ्मय हो, तुम चिन्मय हो। तुम आनन्दमय हो। तुम ब्रह्ममय हो। तुम सच्चिदानन्द अद्वितीय परमात्मा हो। तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। तुम ज्ञानमय हो, विज्ञानमय हो।सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते। सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति। सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति। सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति। त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः। त्वं चत्वारि वाक्पदानि ॥ ५॥यह सारा जगत् तुमसे उत्पन्न होता है। यह सारा जगत् तुमसे सुरक्षित रहता है। यह सारा जगत् तुममें लीन होता है। यह अखिल विश्व तुममें ही प्रतीत होता है। तुम्हीं भूमि, जल, अग्नि और आकाश हो। तुम्हीं परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी चतुर्विध वाक् हो।
त्वं गुणत्रयातीतः त्वमवस्थात्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः। त्वं मूलाधारः स्थिथोऽसि नित्यम्। त्वं शक्तित्रयात्मकः। त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यम्। त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम् ॥ ६॥तुम सत्त्व-रज-तम-इन तीनों गुणों से परे हो। तुम भूत-भविष्य-वर्तमान-इन तीनों कालों से परे हो। तुम स्थूल, सूक्ष्म और कारण- इन तीनों देहों से परे हो। तुम नित्य मूलाधार चक्र में स्थित हो। तुम प्रभु-शक्ति, उत्साह-शक्ति और मन्त्र-शक्ति- इन तीनों शक्तियों से संयुक्त हो। योगिजन नित्य तुम्हारा ध्यान करते हैं। तुम ब्रह्मा हो। तुम विष्णु हो। तुम रुद्र हो। तुम इन्द्र हो। तुम अग्नि हो। तुम वायु हो। तुम सूर्य हो। तुम चन्द्रमा हो। तुम (सगूण) ब्रह्म हो, तुम (निर्गुण) त्रिपाद भूः भुवः स्वः एवं प्रणव हो।
॥ गणेश मंत्र ॥गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरम्।अनुस्वारः परतरः। अर्धेन्दुलसितम्। तारेण ऋद्धम्। एतत्तव मनुस्वरूपम्। गकारः पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम्। अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्। बिन्दुरुत्तररूपम्। नादः संधानम्। संहितासंधिः। सैषा गणेशविद्या। गणकऋषिः। निचृद्गायत्रीच्छंदः। गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नमः ॥ ७॥‘गण’ शब्द के आदि अक्षर गकार का पहले उच्चारण करके अनन्तर आदिवर्ण अकार का उच्चारण करें। उसके बाद अनुस्वार रहे। इस प्रकार अर्धचन्द्र से पहले शोभित जो ‘गं’ है, वह ओंकार के द्वारा रुद्ध हो, अर्थात् उसके पहले और पीछे भी ओंकार हो। यही तुम्हारे मन्त्र का स्वरुप (ॐ गं ॐ) है। ‘गकार’ पूर्वरुप है, ‘अकार’ मध्यमरुप है, ‘अनुस्वार’ अन्त्य रुप है। ‘बिन्दु’ उत्तररुप है। ‘नाद’ संधान है। संहिता’ संधि है। ऐसी यह गणेशविद्या है। इस विद्या के गणक ऋषि हैं। निचृद् गायत्री छन्द है और गणपति देवता है। मन्त्र है- ‘ॐ गं गणपतये नमः”
॥ गणेश गायत्री ॥एकदंताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दंतिः प्रचोदयात् ॥ ८॥एकदन्त को हम जानते हैं, वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं। दन्ती हमको उस ज्ञान और ध्यान में प्रेरित करें।
॥ गणेश रूप (ध्यानम्)॥एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम् ॥रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम् ॥रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् ॥रक्तगंधानुलिप्तांगं रक्तपुष्पैः सुपूजितम् ॥भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम् ॥आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम् ॥एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ॥ ९॥गणपतिदेव एकदन्त और चर्तुबाहु हैं। वे अपने चार हाथों में पाश, अंकुश, दन्त और वरमुद्रा धारण करते हैं। उनके ध्वज में मूषक का चिह्न है। वे रक्तवर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा रक्तवस्त्रधारी हैं। रक्तचन्दन के द्वारा उनके अंग अनुलिप्त हैं। वे रक्तवर्ण के पुष्पों द्वारा सुपूजित हैं। भक्तों की कामना पूर्ण करने वाले, ज्योतिर्मय, जगत् के कारण, अच्युत तथा प्रकृति और पुरुष से परे विद्यमान वे पुरुषोत्तम सृष्टि के आदि में आविर्भूत हुए। इनका जो इस प्रकार नित्य ध्यान करता है, वह योगी योगियों में श्रेष्ठ है।
॥ अष्ट नाम गणपति ॥नमो व्रातपतये । नमो गणपतये । नमः प्रमथपतये । नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय । विघ्ननाशिने शिवसुताय । श्रीवरदमूर्तये नमो नमः ॥ १०॥व्रातपति, गणपति, प्रमथपति, लम्बोदर, एकदन्त, विघ्ननाशक, शिवतनय तथा वरदमूर्ति को नमस्कार है।
॥ फलश्रुति ॥एतदथर्वशीर्षं योऽधीते ॥ स ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ स सर्वतः सुखमेधते ॥ स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते ॥ स पंचमहापापात्प्रमुच्यते ॥ सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ॥ प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ॥ सायंप्रातः प्रयुंजानो अपापो भवति ॥ सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति ॥ धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति ॥ इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम् ॥ यो यदि मोहाद्दास्यति स पापीयान् भवति सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत् ॥ ११॥इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, वह ब्रह्मीभूत होता है, वह किसी प्रकार के विघ्नों से बाधित नहीं होता, वह सर्वतोभावेन सुखी होता है, वह पंच महापापों से मुक्त हो जाता है। सायंकाल इसका अध्ययन करनेवाला दिन में किये हुए पापों का नाश करता है, प्रातःकाल पाठ करनेवाला रात्रि में किये हुए पापों का नाश करता है। सायं और प्रातःकाल पाठ करने वाला निष्पाप हो जाता है। (सदा) सर्वत्र पाठ करनेवाले सभी विघ्नों से मुक्त हो जाता है एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करता है। यह अथर्वशीर्ष इसको नहीं देना चाहिये, जो शिष्य न हो। जो मोहवश अशिष्य को उपदेश देगा, वह महापापी होगा। इसकी १००० आवृत्ति करने से उपासक जो कामना करेगा, इसके द्वारा उसे सिद्ध कर लेगा।
(विविध प्रयोग)अनेन गणपतिमभिषिंचति स वाग्मी भवति ॥ चतुर्थ्यामनश्नन् जपति स विद्यावान् भवति ।स यशोवान् भवति ॥ इत्यथर्वणवाक्यम् ॥ ब्रह्माद्याचरणं विद्यात् न बिभेति कदाचनेति ॥ १२॥जो इस मन्त्र के द्वारा श्रीगणपति का अभिषेक करता है, वह वाग्मी हो जाता है। जो चतुर्थी तिथि में उपवास कर जप करता है, वह विद्यावान् हो जाता है। यह अथर्वण-वाक्य है। जो ब्रह्मादि आवरण को जानता है, वह कभी भयभीत नहीं होता।
(यज्ञ प्रयोग)यो दूर्वांकुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति ॥ यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति ॥ स मेधावान् भवति ॥ यो मोदकसहस्रेण यजति स वाञ्छितफलमवाप्नोति ॥ यः साज्यसमिद्भिर्यजतिस सर्वं लभते स सर्वं लभते ॥ १३॥जो दुर्वांकुरों द्वारा यजन करता है, वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजा के द्वारा यजन करता है, वह यशस्वी होता है, वह मेधावान होता है। जो सहस्त्र मोदकों के द्वारा यजन करता है, वह मनोवाञ्छित फल प्राप्त करता है। जो घृताक्त समिधा के द्वारा हवन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है।
(अन्य प्रयोग)अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति ॥ सूर्यगृहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्त्वा सिद्धमंत्रो भवति ॥ महाविघ्नात्प्रमुच्यते ॥ महादोषात्प्रमुच्यते ॥ महापापात् प्रमुच्यते ॥ स सर्वविद्भवति स सर्वविद्भवति ॥ य एवं वेद इत्युपनिषत् ॥ १४॥जो आठ ब्राह्मणों को इस उपनिषद् का सम्यक ग्रहण करा देता है, वह सूर्य के समान तेज-सम्पन्न होता है। सूर्यग्रहण के समय महानदी में अथवा प्रतिमा के निकट इस उपनिषद् का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है। सम्पूर्ण महाविघ्नों से मुक्त हो जाता है। महापापों से मुक्त हो जाता है। महादोषों से मुक्त हो जाता है। वह सर्वविद् हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है-वह सर्वविद् हो जाता है।॥ शान्ति मंत्र ॥ॐ सहनाववतु ॥ सहनौभुनक्तु ॥ सह वीर्यं करवावहै ॥ तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥ स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः ।व्यशेम देवहितं यदायुः ॥ ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः । स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥ स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ।स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ॐ शांतिः । शांतिः ॥ शांतिः ॥।॥ इति श्रीगणपत्यथर्वशीर्षं समाप्तम् ॥

तंत्र परिचय

तन्त्र शब्द के अर्थ बहुत विस्तृत हैं। यह शब्द ‘तन्’ और ‘त्र’ (ष्ट्रन) इन दो धातुओं से बना है, अतः “विस्तारपूर्वक तत्त्व को अपने अधीन करना”- यह अर्थ व्याकरण की दृष्टि से स्पष्ट होता है, जबकि ‘तन्’ पद से प्रकृति और परमात्मा तथा ‘त्र’ से स्वाधीन बनाने के भाव को ध्यान में रखकर ‘तन्त्र’ का अर्थ- देवताओं के पूजा आदि उपकरणों से प्रकृति और परमेश्वर को अपने अनुकूल बनाना होता है। साथ ही परमेश्वर की उपासना के लिए जो उपयोगी साधन हैं, वे भी ‘तन्त्र’ ही कहलाते हैं। “सर्वेऽथा येन तन्यन्ते त्रायन्ते च भयाज्जनान्।इति तन्त्रस्य तन्त्रत्वं तन्त्रज्ञाः परिचक्षते।।‘जिसके द्वारा सभी मन्त्रार्थों-अनुष्ठानों का विस्तार पूर्वक विचार ज्ञात हो तथा जिसके अनुसार कर्म करने पर लोगों की भय से रक्षा हो, वही ‘तन्त्र’ है।’तन्त्र शास्त्र क्या है ?तन्त्र-शास्त्रों के लक्षणों के विषय में ऋषियों ने शास्त्रों में जो वर्णन किया है, उसके अनुसार निम्न विषयों का जिस शास्त्र में वर्णन किया गया हो, उसको ‘तन्त्र-शास्त्र’ कहते हैं।१॰ सृष्टि-प्रकरण, २॰ प्रलय-प्रकरण, ३॰ तन्त्र-निर्णय, ४॰ दैवी सृष्टि का विस्तार, ५॰ तीर्थ-वर्णन, ६॰ ब्रह्मचर्यादि आश्रम-धर्म, ७॰ ब्राह्मणादि-वर्ण-धर्म, ८॰ जीव-सृष्टि का विस्तार, ९॰ यन्त्र-निर्णय, १०॰ देवताओं की उत्पत्ति, ११॰ औषधि-कल्प, १२॰ ग्रह-नक्षत्रादि-संस्थान, १३॰ पुराणाख्यान-कथन, १४॰ कोष-कथन, १५॰ व्रत-वर्णन, १६॰ शौचा-शौच-निर्णय, १७॰ नरक-वर्णन, १८॰ आकाशादि पञ्च-तत्त्वों के अधिकार के अनुसार पञ्च-सगुणोपासना, १९॰ स्थूल ध्यान आदि भेद से चार प्रकार का ब्रह्म का ध्यान, २०॰ धारणा, मन्त्र-योग, हठ-योग, लय-योग, राज-योग, परमात्मा-परमेश्वर की सब प्रकार की उपासना-विधि, २१॰ सप्त-दर्शन-शास्त्रों की सात ज्ञान-भूमियों का रहस्य, २२॰ अध्यात्म आदि तीन प्रकार के भावों का लक्ष्य, २३॰ तन्त्र और पुराणों की विविध भाषा का रहस्य, २४॰ वेद के षङंग, २५॰ चारों उप-वेद, प्रेत-तत्त्व २६॰ रसायन-शास्त्र, रसायन सिद्धि, २७॰ जप-सिद्धि, २८॰ श्रेष्ठ-तप-सिद्धि, २९॰ दैवी जगत्-सम्बन्धीय रहस्य, ३०॰ सकल-देव-पूजित शक्ति का वर्णन, ३१॰ षट्-चक्र-कथन, ३२॰ स्त्री-पुरुष-लक्षण वर्णन, ३३ राज-धर्म, दान-धर्म, युग धर्म, ३४॰ व्वहार-रीति, ३५॰ आत्मा-अनात्मा का निर्णय इत्यादि।विभिन्न ‘तन्त्र’-प्रणेताओं के विचार-द्वारा ‘तन्त्रों’ को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं-१॰ श्री सदा-शिवोक्त तन्त्र, २॰ पार्वती-कथित तन्त्र, ३॰ ऋषिगण-प्रणीत तन्त्र ग्रन्थ। ये १॰ आगम , २॰ निगम, और ३॰ आर्ष तन्त्र कहलाते हैं।यह एक स्वतन्त्र शास्त्र है, जो पूजा और आचार-पद्धति का परिचय देते हुए इच्छित तत्त्वों को अपने अधीन बनाने का मार्ग दिखलाता है। इस प्रकार यह साधना-शास्त्र है। इसमें साधना के अनेक प्रकार दिखलाए गए हैं, जिनमें देवताओं के स्वरुप, गुण, कर्म आदि के चिन्तन की प्रक्रिया बतलाते हुए ‘पटल, कवच, सहस्त्रनाम तथा स्तोत्र’- इन पाँच अंगों वाली पूजा का विधान किया गया है। इन अंगों का विस्तार से परिचय इस प्रकार हैः-(क) पटल - इसमें मुख्य रुप से जिस देवता का पटल होता है, उसका महत्त्व, इच्छित कार्य की शीघ्र सिद्धि के लिए जप, होम का सूचन तथा उसमें उपयोगी सामग्री आदि का निर्देशन होता है। साथ ही यदि मन्त्र शापित है, तो उसका शापोद्धार भी दिखलाया जाता है।(ख) पद्धति - इसमें साधना के लिए शास्त्रीय विधि का क्रमशः निर्देश होता है, जिसमें प्रातः स्नान से लेकर पूजा और जप समाप्ति तक के मन्त्र तथा उनके विनियोग आदि का सांगोपांग वर्णन होता है। इस प्रकार नित्य पूजा और नैमित्तिक पूजा दोनों प्रकारों का प्रयोग-विधान तथा काम्य-प्रयोगों का संक्षिप्त सूचन इसमें सरलता से प्राप्त हो जाता है।(ग) कचव - प्रत्येक देवता की उपासना में उनके नामों के द्वारा उनका अपने शरीर में निवास तथा रक्षा की प्रार्थना करते गुए जो न्यास किए जाते हैं, वे ही कचव रुप में वर्णित होते हैं। जब ये ‘कचव’ न्यास और पाठ द्वारा सिद्ध हो जाते हैं, तो साधक किसी भी रोगी पर इनके द्वारा झाड़ने-फूंकने की क्रिया करता है और उससे रोग शांत हो जाते हैं। कवच का पाठ जप के पश्चात् होता है। भूर्जपत्र पर कवच का लेखन, पानी का अभिमन्त्रण, तिलकधारण, वलय, ताबीज तथा अन्य धारण-वस्तुओं को अभिमन्त्रित करने का कार्य भी इन्हीं से होता है।(घ) सहस्त्रनाम - उपास्य देव के हजार नामों का संकलन इस स्तोत्र में रहता है। ये सहस्त्रनाम ही विविध प्रकार की पूजाओं में स्वतन्त्र पाठ के रुप में तथा हवन-कर्म में प्रयुक्त होते है। ये नाम देवताओं के अति रहस्यपूर्ण गुण-कर्मों का आख्यान करने वाले, मन्त्रमय तथा सिद्ध-मंत्ररुप होते हैं। इनका स्वतन्त्र अनुष्ठान भी होता है।(ङ) स्तोत्र - आराध्य देव की स्तुति का संग्रह ही स्तोत्र कहलाता है। प्रधान रुप से स्तोत्रों में गुण-गान एवँ प्रार्थनाएँ रहती है; किन्तु कुछ सिद्ध स्तोत्रों में मन्त्र-प्रयोग, स्वर्ण आदि बनाने की विधि, यन्त्र बनाने का विधान, औषधि-प्रयोग आदि भी गुप्त संकेतों द्वारा बताए जाते हैं। तत्त्व, पञ्जर, उपनिषद् आदि भी इसी के भेद-प्रभेद हैं। इनकी संख्या असंख्य है।इन पाँच अंगों से पूर्ण शास्त्र ‘तन्त्र शास्त्र’ कहलाता है।
दीनदयाल मणि त्रिपाठी

सोमवार, 11 अगस्त 2008

माला संस्कार

प्रत्येक कामना पूर्ण करने हेतु जप, तप, यन्त्र, रत्न एम् अनुष्ठान इत्यादि का सहारा लेना पड़ता है, जिसमें माला के चयन की भूमिका अनिवार्य प्रतीत होती है। परन्तु अनेकों बार देखा जाता है कि विद्वानों के संपादित किए जाने के उपरान्त भी अनुष्ठानों का फल आधा, अल्प अथा नगण्य ही रह जाता है, जिसका एक कारण प्रयोग में लायी जाने वाली अथवा धारण की गई माला का जाग्रत न होना है। सर्व विदित है कि भगान शंकर ही तन्त्र मन्त्र के जनक हैं और माला मनोकामनाएं सिद्घि हेतु एक आयुध है। अत: माला का संस्कार कर, उसमें सदाशिव का आवाहन कर माला में अंश रूप से निवास करने की प्रार्थना करनी चाहिए, ताकि आपकी माला जाग्रत हो सके और आपका या आपके यजमान का प्रयोजन सिद्घ हो सके। र्सप्रथम भिन्न देताओं के अनुष्ठानों या मन्त्रों में प्रयोग लायी वाली माला का रिण देना उचित है।
1. भगवान शंकर और उनसेसम्बंधित मन्त्रों में रुद्राक्ष माला का प्रयोग लाभकारी है। अम्बा की उपासना में शुद्घ ‘स्फटिक की माला का प्रयोग करना चाहिए। 3। मां दुर्गा की उपासना में ‘रक्त चंदन की माला का प्रयोग करना चाहिए। 4। मां काली की उपासना में ‘काली हल्दी अथवा ‘नील कमल की माला का प्रयोग करना चाहिए। 5। मां बगलामुखी की उपासना में पीली ‘हल्दी अथवा ‘जीयापोता की माला का प्रयोग करना चाहिए।
6। मां लक्ष्मी की उपासना में ‘ कमलट्टे अथवा स्फटिक की माला शुभ है। 7. भगवान विष्णु के लिए ‘तुलसीज् अथा ‘चन्दनज् की माला का प्रयोग करना चाहिए। 8. भगान गणेशजी के लिए ‘हल्दीज् अथा ‘दूब की जड़ज् की माला उचित है। 9. चन््रमा की शान्ति हेतु ‘मोतीज् ‘शंखज् अथा ‘सीपज् की माला का प्रयोग करें। 10. सूर्य के लिए ‘माणिक्यज्, ‘गारनेटज्, ‘बिल् की लकड़ीज् अथा ‘र्रुाक्षज् की माला का प्रयोग करें। 1.1 मंगल के लिए ‘मूंगें की मालाज्, अथा ‘लाल चंदन की मालाज् उचित स्थान रखती है। 12. बुध के लिए ‘पन्नाज् अथा ‘कुशामूलज् की माला प्रयोग करें। 13. बृहस्पति के लिए ‘हल्दीज् अथा ‘जीया पोताज् की माला प्रयोग करें। 14 शुक्र के लिए ‘स्फटिकज् की माला का प्रयोग करें। 15. शनि के लिए ‘नीलम्ज् ‘बैजयन्तीज् अथा ‘जामुन की गुठलीज् की माला प्रयोग करें। 16. राहु के लिए ‘गोमेदज्, ‘चन्दनज् अथा ‘कच्चे कोयलेज् की माला शुभ है। 17. केतु के लिए ‘लाजार्तज् अथा ‘लहसुनियाज् की माला शुभ है।
स्तुत: र्रुाक्ष की माला सभी देी देताओं अथा ग्रहों की उपासना में प्रयोग की जा सकती है। माला के चयन के उपरान्त माला के मनकों की संख्या सुनिश्चित करनी चाहिए, जसे -ज् अर्थ एम् धन सम्बन्धित प्रयोग में तीस मनके की माला उपयुक्त है।ज् र्स कामना सिद्घि हेतु सत्ताईस मनके की माला प्रयोग में लानी चाहिए।ज् मारण कार्यो में पन््रह मनको की माला प्रयोग में लायी जानी चाहिए।ज् मोक्ष के लिए एक सौ आठ मनकों की माला उपयुक्त है। मेरे मतानुसार 108 मनकों की माला सभी कार्य हेतु सिद्घ है। सुमेरु की गणना मनकों की गणना में नगण्य है, अत: सुमेरु को मनकों के साथ नहीं गिनना चाहिए। सुमेरु प्रत्येक माला में अनिार्य है। अब माला का धागा किस रंग का हो यह प्रश्न चिारणीय है।
ज् शीकरण एम् लक्ष्मी प्राप्ति हेतु लाल रंग का रेशमी धागा होना चाहिए। ज् तन्त्र एम् मारण या काले प्रयोगों में काला धागा प्रयोग में लाना चाहिए। ज् मोक्ष एम् शान्ति कार्यो में सफेदधागा प्रयोग करना चाहिए। धातु तारों में तांबा, रजत एम् स्र्ण क्रमश: शुभ हैं। माला के दो मनकों के मध्य गाँठ अश्य लगानी चाहिए। सुमेरु पर धागे अथा तार के ढाई फेरे होने चाहिएं। अब माला तैयार है।
डॉ दीनदयाल मणि त्रिपाठी

चक्र bhedana

रविवार, 10 अगस्त 2008

यज्ञ


यज्ञ शब्द के तीन अर्थ हैं- १- देवपूजा, २-दान, ३-संगतिकरण । संगतिकरण का अर्थ है-संगठन । यज्ञ का एक प्रमुख उद्देश्य धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को सत्प्रयोजन के लिए संगठित करना भी है । इस युग में संघ शक्ति ही सबसे प्रमुख है । परास्त देवताओं को पुनः विजयी बनाने के लिए प्रजापति ने उसकी पृथक्-पृथक् शक्तियों का एकीकरण करके संघ-शक्ति के रूप में दुर्गा शक्ति का प्रादुर्भाव किया था । उस माध्यम से उसके दिन फिरे और संकट दूर हुए । मानवजाति की समस्या का हल सामूहिक शक्ति एवं संघबद्धता पर निर्भर है, एकाकी-व्यक्तिवादी-असंगठित लोग दुर्बल और स्वार्थी माने जाते हैं । गायत्री यज्ञों का वास्तविक लाभ सार्वजनिक रूप से, जन सहयोग से सम्पन्न कराने पर ही उपलब्ध होता है । यज्ञ का तात्पर्य है-त्याग, बलिदान, शुभ कर्म । अपने प्रिय खाद्य पदार्थों एवं मूल्यवान् सुगंधित पौष्टिक द्रव्यों को अग्नि एवं वायु के माध्यम से समस्त संसार के कल्याण के लिए यज्ञ द्वारा वितरित किया जाता है । वायु शोधन से सबको आरोग्यवर्धक साँस लेने का अवसर मिलता है । हवन हुए पदार्थ् वायुभूत होकर प्राणिमात्र को प्राप्त होते हैं और उनके स्वास्थ्यवर्धन, रोग निवारण में सहायक होते हैं । यज्ञ काल में उच्चरित वेद मंत्रों की पुनीत शब्द ध्वनि आकाश में व्याप्त होकर लोगों के अंतःकरण को सात्विक एवं शुद्ध बनाती है । इस प्रकार थोड़े ही खर्च एवं प्रयतन से यज्ञकर्ताओं द्वारा संसार की बड़ी सेवा बन पड़ती है ।वैयक्तिक उन्नति और सामाजिक प्रगति का सारा आधार सहकारिता, त्याग, परोपकार आदि प्रवृत्तियों पर निर्भर है । यदि माता अपने रक्त-मांस में से एक भाग नये शिशु का निर्माण करने के लिए न त्यागे, प्रसव की वेदना न सहे, अपना शरीर निचोड़कर उसे दूध न पिलाए, पालन-पोषण में कष्ट न उठाए और यह सब कुछ नितान्त निःस्वार्थ भाव से न करे, तो फिर मनुष्य का जीवन-धारण कर सकना भी संभव न हो । इसलिए कहा जाता है कि मनुष्य का जन्म यज्ञ भावना के द्वारा या उसके कारण ही संभव होता है । गीताकार ने इसी तथ्य को इस प्रकार कहा है कि प्रजापति ने यज्ञ को मनुष्य के साथ जुड़वा भाई की तरह पैदा किया और यह व्यवस्था की, कि एक दूसरे का अभिवर्धन करते हुए दोनों फलें-फूलें । यदि यज्ञ भावना के साथ मनुष्य ने अपने को जोड़ा न होता, तो अपनी शारीरिक असमर्थता और दुर्बलता के कारण अन्य पशुओं की प्रतियोगिता में यह कब का अपना अस्तित्व खो बैठा होता । यह जितना भी अब तक बढ़ा है, उसमें उसकी यज्ञ भावना ही एक मात्र माध्यम है । आगे भी यदि प्रगति करनी हो, तो उसका आधार यही भावना होगी । प्रकृति का स्वभाव यज्ञ परंपरा के अनुरूप है । समुद्र बादलों को उदारतापूर्वक जल देता है, बादल एक स्थान से दूसरे स्थान तक उसे ढोकर ले जाने और बरसाने का श्रम वहन करते हैं । नदी, नाले प्रवाहित होकर भूमि को सींचते और प्राणियों की प्यास बुझाते हैं । वृक्ष एवं वनस्पतियाँ अपने अस्तित्व का लाभ दूसरों को ही देते हैं । पुष्प और फल दूसरे के लिए ही जीते हैं । सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, वायु आदि की क्रियाशीलता उनके अपने लाभ के लिए नहीं, वरन् दूसरों के लिए ही है । शरीर का प्रत्येक अवयव अपने निज के लिए नहीं, वरन् समस्त शरीर के लाभ के लिए ही अनवरत गति से कार्यरत रहता है । इस प्रकार जिधर भी दृष्टिपात किया जाए, यही प्रकट होता है कि इस संसार में जो कुछ स्थिर व्यवस्था है, वह यज्ञ वृत्ति पर ही अवलम्बित है । यदि इसे हटा दिया जाए, तो सारी सुन्दरता, कुरूपता में और सारी प्रगति, विनाश में परिणत हो जायेगी । ऋषियों ने कहा है- यज्ञ ही इस
संसार चक्र का धुरा है । धुरा टूट जाने पर गाड़ी का आगे बढ़ सकना कठिन है ।

यज्ञीय विज्ञान मन्त्रों में अनेक शक्ति के स्रोत दबे हैं । जिस प्रकार अमुक स्वर-विन्यास ये युक्त शब्दों की रचना करने से अनेक राग-रागनियाँ बजती हैं और उनका प्रभाव सुनने वालों पर विभिन्न प्रकार का होता है, उसी प्रकार मंत्रोच्चारण से भी एक विशिष्ट प्रकार की ध्वनि तरंगें निकलती हैं और उनका भारी प्रभाव विश्वव्यापी प्रकृति पर, सूक्ष्म जगत् पर तथा प्राणियों के स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों पर पड़ता है । यज्ञ के द्वारा जो शक्तिशाली तत्त्व वायुमण्डल में फैलाये जाते हैं, उनसे हवा में घूमते असंख्यों रोग कीटाणु सहज ही नष्ट होते हैं । डी.डी.टी., फिनायल आदि छिड़कने, बीमारियों से बचाव करने वाली दवाएँ या सुइयाँ लेने से भी कहीं अधिक कारगर उपाय यज्ञ करना है । साधारण रोगों एवं महामारियों से बचने का यज्ञ एक सामूहिक उपाय है । दवाओं में सीमित स्थान एवं सीमित व्यक्तियों को ही बीमारियों से बचाने की शक्ति है; पर यज्ञ की वायु तो सर्वत्र ही पहुँचती है और प्रयतन न करने वाले प्राणियों की भी सुरक्षा करती है । मनुष्य की ही नहीं, पशु-पक्षियों, कीटाणुओं एवं वृक्ष-वनस्पतियों के आरोग्य की भी यज्ञ से रक्षा होती है । यज्ञ की ऊष्मा मनुष्य के अंतःकरण पर देवत्व की छाप डालती है । जहाँ यज्ञ होते हैं, वह भूमि एवं प्रदेश सुसंस्कारों की छाप अपने अन्दर धारण कर लेता है और वहाँ जाने वालों पर दीर्घकाल तक प्रभाव डालता रहता है । प्राचीनकाल में तीर्थ वहीं बने हैं, जहाँ बड़े-बड़े यज्ञ हुए थे । जिन घरों में, जिन स्थानों में यज्ञ होते हैं, वह भी एक प्रकार का तीर्थ बन जाता है और वहाँ जिनका आगमन रहता है, उनकी मनोभूमि उच्च, सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनती हैं । महिलाएँ, छोटे बालक एवं गर्भस्थ बालक विशेष रूप से यज्ञ शक्ति से अनुप्राणित होते हैं । उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिए यज्ञीय वातावरण की समीपता बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है । कुबुद्धि, कुविचार, दुर्गुण एवं दुष्कर्मों से विकृत मनोभूमि में यज्ञ से भारी सुधार होता है । इसलिए यज्ञ को पापनाशक कहा गया है । यज्ञीय प्रभाव से सुसंस्कृत हुई विवेकपूर्ण मनोभूमि का प्रतिफल जीवन के प्रत्येक क्षण को स्व्ार्गीय आनन्द से भर देता है, इसलिए यज्ञ को स्वर्ग्ा देने वाला कहा गया है । यज्ञीय धर्म प्रक्रियाओं में भाग लेने से आत्मा पर चढ़े हुए मल-विक्षेप दूर होते हैं । फलस्वरूप तेजी से उसमें ईश्वरीय प्रकाश जगता है । यज्ञ से आत्मा में ब्राह्मण तत्त्व, ऋषि तत्त्व की वृद्धि दिनानु-दिन होती है और आत्मा को परमात्मा से मिलाने का परम लक्ष्य बहुत सरल हो जाता है । आत्मा और परमात्मा को जोड़ देने का, बाँध देने का कार्य यज्ञाग्नि द्वारा ऐसे ही होता है, जैसे लोहे के टूटे हुए टुकड़ों को बैल्डिंग की अगि्न जोड़ देती है । ब्राह्मणत्व यज्ञ के द्वारा प्राप्त होता है । इसलिए ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिए एक तिहाई जीवन यज्ञ कर्म के लिए अर्पित करना पड़ता है । लोगों के अंतःकरण में अन्त्यज वृत्ति घटे-ब्राह्मण वृत्ति बढ़े, इसके लिए वातावरण में यज्ञीय प्रभाव की शक्ति भरना आवश्यक है । विधिवत् किये गये यज्ञ इतने प्रभावशाली होते हैं, जिसके द्वारा मानसिक दोषों-र्दुगुणों का निष्कासन एवं सद्भावों का अभिवर्धन नितान्त संभव है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईष्र्या, द्वेष, कायरता,
संसार चक्र का धुरा है । धुरा टूट जाने पर गाड़ी का आगे बढ़ सकना कठिन है ।

यज्ञीय विज्ञान
मन्त्रों में अनेक शक्ति के स्रोत दबे हैं । जिस प्रकार अमुक स्वर-विन्यास ये युक्त शब्दों की रचना करने से अनेक राग-रागनियाँ बजती हैं और उनका प्रभाव सुनने वालों पर विभिन्न प्रकार का होता है, उसी प्रकार मंत्रोच्चारण से भी एक विशिष्ट प्रकार की ध्वनि तरंगें निकलती हैं और उनका भारी प्रभाव विश्वव्यापी प्रकृति पर, सूक्ष्म जगत् पर तथा प्राणियों के स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों पर पड़ता है । यज्ञ के द्वारा जो शक्तिशाली तत्त्व वायुमण्डल में फैलाये जाते हैं, उनसे हवा में घूमते असंख्यों रोग कीटाणु सहज ही नष्ट होते हैं । डी.डी.टी., फिनायल आदि छिड़कने, बीमारियों से बचाव करने वाली दवाएँ या सुइयाँ लेने से भी कहीं अधिक कारगर उपाय यज्ञ करना है । साधारण रोगों एवं महामारियों से बचने का यज्ञ एक सामूहिक उपाय है । दवाओं में सीमित स्थान एवं सीमित व्यक्तियों को ही बीमारियों से बचाने की शक्ति है; पर यज्ञ की वायु तो सर्वत्र ही पहुँचती है और प्रयतन न करने वाले प्राणियों की भी सुरक्षा करती है । मनुष्य की ही नहीं, पशु-पक्षियों, कीटाणुओं एवं वृक्ष-वनस्पतियों के आरोग्य की भी यज्ञ से रक्षा होती है । यज्ञ की ऊष्मा मनुष्य के अंतःकरण पर देवत्व की छाप डालती है । जहाँ यज्ञ होते हैं, वह भूमि एवं प्रदेश सुसंस्कारों की छाप अपने अन्दर धारण कर लेता है और वहाँ जाने वालों पर दीर्घकाल तक प्रभाव डालता रहता है । प्राचीनकाल में तीर्थ वहीं बने हैं, जहाँ बड़े-बड़े यज्ञ हुए थे । जिन घरों में, जिन स्थानों में यज्ञ होते हैं, वह भी एक प्रकार का तीर्थ बन जाता है और वहाँ जिनका आगमन रहता है, उनकी मनोभूमि उच्च, सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनती हैं । महिलाएँ, छोटे बालक एवं गर्भस्थ बालक विशेष रूप से यज्ञ शक्ति से अनुप्राणित होते हैं । उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिए यज्ञीय वातावरण की समीपता बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है । कुबुद्धि, कुविचार, दुर्गुण एवं दुष्कर्मों से विकृत मनोभूमि में यज्ञ से भारी सुधार होता है । इसलिए यज्ञ को पापनाशक कहा गया है । यज्ञीय प्रभाव से सुसंस्कृत हुई विवेकपूर्ण मनोभूमि का प्रतिफल जीवन के प्रत्येक क्षण को स्व्ार्गीय आनन्द से भर देता है, इसलिए यज्ञ को स्वर्ग्ा देने वाला कहा गया है । यज्ञीय धर्म प्रक्रियाओं में भाग लेने से आत्मा पर चढ़े हुए मल-विक्षेप दूर होते हैं । फलस्वरूप तेजी से उसमें ईश्वरीय प्रकाश जगता है । यज्ञ से आत्मा में ब्राह्मण तत्त्व, ऋषि तत्त्व की वृद्धि दिनानु-दिन होती है और आत्मा को परमात्मा से मिलाने का परम लक्ष्य बहुत सरल हो जाता है । आत्मा और परमात्मा को जोड़ देने का, बाँध देने का कार्य यज्ञाग्नि द्वारा ऐसे ही होता है, जैसे लोहे के टूटे हुए टुकड़ों को बैल्डिंग की अगि्न जोड़ देती है । ब्राह्मणत्व यज्ञ के द्वारा प्राप्त होता है । इसलिए ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिए एक तिहाई जीवन यज्ञ कर्म के लिए अर्पित करना पड़ता है । लोगों के अंतःकरण में अन्त्यज वृत्ति घटे-ब्राह्मण वृत्ति बढ़े, इसके लिए वातावरण में यज्ञीय प्रभाव की शक्ति भरना आवश्यक है । विधिवत् किये गये यज्ञ इतने प्रभावशाली होते हैं, जिसके द्वारा मानसिक दोषों-र्दुगुणों का निष्कासन एवं सद्भावों का अभिवर्धन नितान्त संभव है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईष्र्या, द्वेष, कायरता, कामुकता, आलस्य, आवेश, संशय आदि मानसिक उद्वेगों की चिकित्सा के लिए यज्ञ एक विश्वस्त पद्धति है । शरीर के असाध्य रोगों तक का निवारण उससे हो सकता है । अगि्नहोत्र के भौतिक लाभ भी हैं । वायु को हम मल, मूत्र, श्वास तथा कल-कारखानों के धुआँ आदि से गन्दा करते हैं । गन्दी वायु रोगों का कारण बनती है । वायु को जितना गन्दा करें, उतना ही उसे शुद्ध भी करना चाहिए । यज्ञों से वायु शुद्ध होती है । इस प्रकार सार्वजनिक स्वास्थ्य की सुरक्षा का एक बड़ा प्रयोजन सिद्ध होता है । यज्ञ का धूम्र आकाश में-बादलों में जाकर खाद बनकर मिल जाता है । वर्षा के जल के साथ जब वह पृथ्वी पर आता है, तो उससे परिपुष्ट अन्न, घास तथा वनस्पतियाँ उत्पन्न होती हैं, जिनके सेवन से मनुष्य तथा पशु-पक्षी सभी परिपुष्ट होते हैं । यज्ञागि्न के माध्यम से शक्तिशाली बने मन्त्रोच्चार के ध्वनि कम्पन, सुदूर क्षेत्र में बिखरकर लोगों का मानसिक परिष्कार करते हैं, फलस्वरूप शरीरों की तरह मानसिक स्वास्थ्य भी बढ़ता है । अनेक प्रयोजनों के लिए-अनेक कामनाओं की पूर्ति के लिए, अनेक विधानों के साथ, अनेक विशिष्ट यज्ञ भी किये जा सकते हैं । दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ करके चार उत्कृष्ट सन्तानें प्राप्त की थीं, अगि्नपुराण में तथा उपनिषदों में वर्णित पंचाग्नि विद्या में ये रहस्य बहुत विस्तारपूर्वक बताये गये हैं । विश्वामित्र आदि ऋषि प्राचीनकाल में असुरता निवारण के लिए बड़े-बड़े यज्ञ करते थे । राम-लक्ष्मण को ऐसे ही एक यज्ञ की रक्षा के लिए स्वयं जाना पड़ा था । लंका युद्ध के बाद राम ने दस अश्वमेध यज्ञ किये थे । महाभारत के पश्चात् कृष्ण ने भी पाण्डवों से एक महायज्ञ कराया था, उनका उद्देश्य युद्धजन्य विक्षोभ से क्षुब्ध वातावरण की असुरता का समाधान करना ही था । जब कभी आकाश के वातावरण में असुरता की मात्रा बढ़ जाए, तो उसका उपचार यज्ञ प्रयोजनों से बढ़कर और कुछ हो नहीं सकता । आज पिछले दो महायुद्धों के कारण जनसाधारण में स्वार्थपरता की मात्रा अधिक बढ़ जाने से वातावरण में वैसा ही विक्षोभ फिर उत्पन्न हो गया है । उसके समाधान के लिए यज्ञीय प्रक्रिया को पुनर्जीवित करना आज की स्थिति में और भी अधिक आवश्यक हो गया है ।

यज्ञीय प्रेरणाएँ
यज्ञ आयोजनों के पीछे जहाँ संसार की लौकिक सुख-समृद्धि को बढ़ाने की विज्ञान सम्मत परंपरा सन्निहित है-जहाँ देव शक्तियों के आवाहन-पूजन का मंगलमय समावेश है, वहाँ लोकशिक्षण की भी प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है । जिस प्रकार 'बाल फ्रेम' में लगी हुई रंगीन लकड़ी की गोलियाँ दिखाकर छोटे विद्यार्थियों को गिनती सिखाई जाती है, उसी प्रकार यज्ञ का दृश्य दिखाकर लोगों को यह भी समझाया जाता है कि हमारे जीवन की प्रधान नीति 'यज्ञ' भाव से परिपूर्ण होनी चाहिए । हम यज्ञ आयोजनों में लगें-परमार्थ परायण बनें और जीवन को यज्ञ परंपरा में ढालें । हमारा जीवन यज्ञ के समान पवित्र, प्रखर और प्रकाशवान् हो । गंगा स्नान से जिस प्रकार पवित्रता, शान्ति, शीतलता, आदरता को हृदयंगम करने की प्रेरणा ली जाती है, उसी प्रकार यज्ञ से तेजस्विता, प्रखरता, परमार्थ-परायणता एवं उत्कृष्टता का प्रशिक्षण मिलता है । यज्ञ की प्रक्रिया को जीवन यज्ञ का एक रिहर्सल कहा जा सकता है । अपने घी, शक्कर, मेवा, औषधियाँ आदि बहुमूल्य वस्तुएँ जिस प्र्रकार हम परमार्थ प्रयोजनों में होम करते हैं, उसी तरह अपनी प्रतिभा, विद्या, बुद्धि, समृद्धि, सार्मथ्य आदि को भी विश्व मानव के चरणों में समर्पित करना
चाहिए । इस नीति को अपनाने वाले व्यक्ति न केवल समाज का, बल्कि अपना भी सच्चा कल्याण करते हैं । संसार में जितने भी महापुरुष, देवमानव हुए हैं, उन सभी को यही नीति अपनानी पड़ी है । जो उदारता, त्याग, सेवा और परोपकार के लिए कदम नहीं बढ़ा सकता, उसे जीवन की सार्थकता का श्रेय और आनन्द भी नहीं मिल सकता । यज्ञीय प्रेरणाओं का महत्त्व समझाते हुए ऋग्वेद में यज्ञाग्नि को पुरोहित कहा गया है । उसकी शिक्षाओं पर चलकर लोक-परलोक दोनों सुधारे जा सकते हैं । वे शिक्षाएँ इस प्रकार हैं- १- जो कुछ हम बहुमूल्य पदार्थ अग्नि में हवन करते हैं, उसे वह अपने पास संग्रह करके नहीं रखती, वरन् उसे सर्वसाधारण के उपयोग के लिए वायुमण्डल में बिखेर देती है । ईश्वर प्रदत्त विभूतियों का प्रयोग हम भी वैसा ही करें, जो हमारा यज्ञ पुरोहित अपने आचरण द्वारा सिखाता है । हमारी शिक्षा, समृद्धि, प्रतिभा आदि विभूतियों का न्यूनतम उपयोग हमारे लिए और अधिकाधिक उपयोग जन-कल्याण के लिए होना चाहिए । २- जो वस्तु अग्नि के सम्पर्क में आती है, उसे वह दुरदुराती नहीं, वरन् अपने में आत्मसात् करके अपने समान ही बना लेती है । जो पिछड़े या छोटे या बिछुड़े व्यक्ति अपने सम्पर्क में आएँ, उन्हें हम आत्मसात् करने और समान बनाने का आदर्श पूरा करें । ३- अग्नि की लौ कितना ही दबाव पड़ने पर नीचे की ओर नहीं होती, वरन् ऊपर को ही रहती है । प्रलोभन, भय कितना ही सामने क्यों न हो, हम अपने विचारों और कार्यों की अधोगति न होने दें । विषम स्थितियों में अपना संकल्प और मनोबल अग्नि शिखा की तरह ऊँचा ही रखें । ४- अग्नि जब तक जीवित है, उष्ण्ाता एवं प्रकाश की अपनी विशेषताएँ नहीं छोड़ती । उसी प्रकार हमें भी अपनी गतिशीलता की गर्मी और धर्म-परायणता की रोशनी घटने नहीं देनी चाहिए । जीवन भर पुरुषार्थी और कर्त्तव्यनिष्ठ रहना चाहिए । ५- यज्ञाग्नि का अवशेष भस्म मस्तक पर लगाते हुए हमें सीखना होता है कि मानव जीवन का अन्त मुट्ठी भर भस्म के रूप में शेष रह जाता है । इसलिए अपने अन्त को ध्यान में रखते हुए जीवन के सदुपयोग का प्रयत्न करना चाहिए । अपनी थोड़ी-सी वस्तु को वायुरूप में बनाकर उन्हें समस्त जड़-चेतन प्राणियों को बिना किसी अपने-पराये, मित्र-शत्रु का भेद किये साँस द्वारा इस प्रकार गुप्तदान के रूप में खिला देना कि उन्हें पता भी न चले कि किस दानी ने हमें इतना पौष्टिक तत्त्व खिला दिया, सचमुच एक श्रेष्ठ ब्रह्मभोज का पुण्य प्राप्त करना है, कम खर्च में बहुत अधिक पुण्य प्राप्त करने का यज्ञ एक सर्वोत्तम उपाय है । यज्ञ सामूहिकता का प्रतीक है । अन्य उपासनाएँ या धर्म-प्रक्रियाएँ ऐसी हैं, जिन्हें कोई अकेला कर या करा सकता है; पर यज्ञ ऐसा कार्य है, जिसमें अधिक लोगों के सहयोग की आवश्यकता है । होली आदि बड़े यज्ञ तो सदा सामूहिक ही होते हैं । यज्ञ आयोजनों से सामूहिकता, सहकारिता और एकता की भावनाएँ विकसित होती हैं । प्रत्येक शुभ कार्य, प्रत्येक पर्व-त्यौहार, संस्कार यज्ञ के साथ सम्पन्न होता है । यज्ञ भारतीय संस्कृति का पिता है । यज्ञ भारत की एक मान्य एवं प्राचीनतम वैदिक उपासना है । धार्मिक एकता एवं भावनात्मक एकता को लाने के लिए ऐसे आयोजनों की सर्वमान्य साधना का आश्रय लेना सब प्रकार दूरदर्शितापूर्ण है । गायत्री सद्बुद्धि की देवी और यज्ञ सत्कर्मों का पिता है । सद्भावनाओं एवं सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए गायत्री माता और यज्ञ पिता का युग्म हर दृष्टि से सफल एवं समर्थ सिद्ध हो सकता है । गायत्री यज्ञों की विधि-व्यवस्था बहुत ही सरल, लोकप्रिय एवं आकर्षक भी है । जगत् के दुर्बुद्धिग्रस्त जनमानस का संशोधन करने के लिए सद्बुद्धि की देवी गायत्री महामन्त्र की शक्ति एवं सार्मथ्य अद्भुत भी है और अद्वितीय भी । नगर, ग्राम अथवा क्षेत्र की जनता को धर्म प्रयोजनों के लिए एकत्रित करने के लिए जगह-जगह पर गायत्री यज्ञों के आयोजन करने चाहिए । गलत ढंग से करने पर वे महँगे भी होते हैं और शक्ति की बरबादी भी बहुत करते हैं । यदि उन्हें विवेक-बुद्धि से किया जाए, तो कम खर्च में अधिक आकर्षक भी बन सकते हैं और उपयोगी भी बहुत हो सकते हैं । अपने सभी कर्मकाण्डों, धर्मानुष्ठानों, संस्कारों, पर्वों में यज्ञ आयोजन मुख्य है । उसका विधि-विधान जान लेने एवं उनका प्रयोजन समझ लेने से उन सभी धर्म आयोजनों की अधिकांश आवश्यकता पूरी हो जाती है । लोकमंगल के लिए, जन-जागरण के लिए, वातावरण के परिशोधन के लिए स्वतंत्र रूप से भी यज्ञ आयोजन सम्पन्न किये जाते हैं । संस्कारों और पर्व-आयोजनों में भी उसी की प्रधानता है । प्रत्येक भारतीय धर्मानुयायी को यज्ञ प्रक्रिया से परिचित होना ही चाहिए ।