मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

कठोपनिषद प्रवेश

कठोपनिषद् दिव्यामृत

प्रवेश

भारत की एक प्रमुख विशेषता उसकी अटूट चिन्तन-परम्परा है। भारत के मनीषियों ने बहिर्मुखी जीवन के प्रलोभनो एवं आकर्षणों से मन को हटाकर, अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को प्रश्रय देकर तथा तत्व-जिज्ञासा से प्रेरित होकर, जीवन के चरम लक्ष्य पर गहन चिन्त्न किया। जीवन, जगत् और आत्मा के रहस्यों की खोज में उन्होने अनेक दर्शन-पद्धतियों का सृजन किया।'दर्शन' का अर्थ 'देखना' है, न कि मात्र अनुमान पर आधारित विचार करना। इसी कारण भारत में दर्शन धर्म एवं जनजीवन का अंग बन गया, जब कि अन्य देशों में वह वाग्विलास के रुप में कुछ चिन्तकों तक ही सीमित रहा। वास्तव में, सत्य का अन्वेषण करना धर्म का प्रमुख लक्षण है।

भारत की समस्त वैदिक एवं अवैदिक दर्शन-पद्धतियों के मूलसूत्र परस्पर जुडे हुए हैं और सबका लक्ष्य परम तत्व की खोज तथा जीवन में दु:ख का निराकरण एवं स्थायी सुख-शान्ति की स्थापना करना रहा है। बाह्य रुप में विभिन्न होते हुए भी उनमें लच्स क एकता स्पष्ट है। सभी अन्त:करण की पवित्रता को त्तवान्वेषण के लिए महत्वूपर्ण मानते हैं।

संसार के प्राचीनतम ज्ञान-ग्रंथ वेद हैं तथा उपनिषद् उनके वैचारिक शिखर हैं। १ वैदिक ऋषियों ने धर्म(सत्य) का साक्षात्कार (अनुभव) किया, 'साक्षात्कृत- धर्माणो ऋषयो बभूवु:' ऋषियों ने मंत्रो के अन्तर्निहित सत्य् का दर्शन् (स्पष्ट अनुभव) किया। ऋषयो मत्रद्रष्टार:। वास्तव में उपनिषद् ऋषियों के अनुभव-जन्य् उदगारों के भण्डार हैं, जिन्हें मंत्रों के रुप में प्रतिष्ठित किया गया है और वे मात्र विचार अथवा मत नहीं हैं।

उपनिषद वेदो के ज्ञानभाग हैं तथा उनमें कर्मकाण्ड की उपेक्षा की गयी है। यद्यपि वेदों मे अन्तिम सत्य को एक ही घोषित किया गया, उसको अनेक नाम दे दिये गये। उपनिषदों ने उसे 'ब्रह्म' (बड़ा) नाम दे दिया। वेदों ने जिन प्रश्नों के उत्तर नहीं दिए, उपनिषदों ने उनके भी उत्तर

१. उपनिषदों के महत्व एवं विषयवस्तु की पर्याप्त् चर्चा हम 'ईशावास्य-दिव्यामृत' के 'प्रवेश' में कर चुके हैं तथा यहां उसकी पुनरावृत्थ्त् करना अनावश्यक है। सुधी पाठकों से हमारा अनुरोध है कि वे पृष्ठभूमि के रुप में उसे ध्यानपूर्वक् अवश्य पढ लें। (हमारी योजना के अन्तर्गत प्रमुख उपनिषदों की सरल टीकाओं के अतिरिक्त'अष्टावक्रगीतारसामृत'का प्रणयन तथा 'सूक्ष्म जगत् में प्रवेश: मन के उस ओर' इत्यादि की रचना करना भी है। ) स्वामी विवेकानन्छ एवं श्री अरविन्द की रचनाएं उपनिषदों को समझने के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। डॉ० राधाकृष्णन की रचनाएं भी भारतीय दर्शन को समझने में अत्यन्त सहायक हैं।

दे दिए। उपनिषद परमात्मा, जीवात्मा सृष्टि आदि विषयों का निरुपण करते हैं, किन्तु एक अद्वितीय ब्रह्म को अन्तिम सत्ता के रुप में प्रतिपादित करते हैं। यह एक आश्चर्य है कि सभी उपनिषद् भिन्न-भिन्न प्रकार से एक ही ब्रह्म का निर्वचन करते हैं तथा उपनिषदों में एक स्पष्ट तारतम्य है। ब्रह्म का साक्षात्कार ही जीवन का परम लक्ष्य है। प्रज्ञान ब्रह्म है, १ मैं ब्रह्म हूँ, २ वही तू है, ३ यह आत्मा ब्रह्म है, ४ ये चार महावाक्य हैं। सब कुछ ब्रह्म ही है। ५ ब्रह्म सत्य है, ज्ञान है, अनन्त है। ६

उपनिषदों के रचना-काल तथा उनकी संख्या का निर्णय करना कठिन है। प्रमुख उपनिषद् ग्यारह कहे गए हैं – ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक्, माण्डूक्य्, ऐतरेय, तैत्तिरीय, श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक तथा छान्दोग्य। शक्कराचार्य ने इन सब पर भाष्य लिखें है, यद्यपि कुछ विद्वानों ने श्वेताश्वतर उपनिषद के भाष्य को शक्कराचार्य-प्रणीत नहीं माना है। कौषीतकी तथा नृसिंहतापिनी उपनिषदों को सम्मिलित करने पर प्रमुख उपनिषदो की संख्या तेरह हो जाती है। अगणित वेद-शाखाएं, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद विलुप्त हो चुके हैं। हमें ऋग्वेद के दस, कृष्ण यजुर्वेद के बत्तीस, सामवेद के सोलह, अथर्ववेद के इकतीस उपनिषद उपलब्ध हैं। वेदों पर आधारित ब्राह्मण-ग्रन्थों में यज्ञों की चर्चा है तथा उनसे सम्बद्ध आरण्यक हैं, जो अरण्यों (वनों) में उपदिष्ट हुए। प्राय: ब्राह्मण-ग्रन्थों एवं आरण्यकों के सूक्ष्म चिन्त्नपूर्ण अंश उपनिषद हैं। ब्राह्मण-ग्रन्थों और आरण्यकों को प्रधानत: कर्मकाण्ड क्हा जाता है तथा उपनिषद ज्ञानकाण्ड हैं। उपनिषद वैदिक-वाड्मय का नवनीत हैं।

उपनिषदों मे प्रतिपादित ब्रह्म एक और अद्वितीय है। वह द्वैतरहित है। वह नित्य् और शाश्वत है, अचल है। ब्रह्म ही विश्व की एक मात्र सत्ता है। उपनिषदों में 'आत्मा' परमात्मा अथवा ब्रह्म का पर्यायवाची है। ब्रह्म निर्विशेष अथवा निर्गुण है। उसे निषेध द्वारा निर्गुण रुप में वर्णित किया जाता है- नेति नेति (यह भी नहीं, यह भी नहीं)। ब्रह्म बर्णन सेपरे है।'स एष नेति नेति आत्मा' (बृहद० उप०, ४.४.२२)।

१. प्रज्ञानं ब्रह्म (ऐतरेय उप०, ३.१.३)
२. अहं ब्रह्मस्मि ( बृहद० उप०, १.४.१० )
३. तत्वमसि (छान्दोग्य उप०, ६.१५ )
४. अयमात्मा ब्रह्म (माण्डूक्य उप०, २)
५. सर्वं खल्विदं ब्रह्म (छान्दोग्य उप०, ३.१४.१ )
६. सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म (तैत्तिरीय उप०, २.१ )

वेद पर आधारित छह दर्शनशास्त्र सोपानात्म्क् हैं। मीमांसा में ईश्वर की प्रतिष्ठा नहीं हैं, यद्यपि वह वेद पर ही आधारित है। सांख्य, योग, न्याय और वैशेषिक स्वतंत्र हैं। वेदान्त छह शास्त्रों के सापान मे सर्वोपरि है। उपनिषद ही वेदान्त् अर्थात वेद का प्रतिपाद्य अन्तिम ज्ञान-भाग हैं। उपनिषदों में वेदान्त्-दर्शन सन्निहित है, अतएव दोनों पर्याय्वाची हो गए हैं। वेदान्त् का अर्थ है-वेदों का अन्त, ध्येय, अर्थात प्रतिपाद्य अथवा सारतत्त्व।

मनुष्य में अपने भीतर गहरे प्रवेश एवं सूक्ष्म अनुभवों द्वारा विश्व के समस्त रहस्यों का उद्घाटन करने की सामर्थ्य है। १ परब्रह्म परमात्मा की प्रच्छन्न शक्ति माया है। वेदान्त के अनुसार मायारहित ब्रह्म निर्गुण अथवा विशुद्ध ब्रह्म है तथा मायासहित (अथवा मायोपाधिविशिष्ट) ब्रह्म ही सगुण ब्रह्म, अपरब्रह्म अथवा ईश्वर है, जो सृष्टि की रचना करता है, कर्मफल देता है और भक्तों का उपास्य है। वह अन्तर्यामी है। वास्तव में दोनों परब्रह्म और अपरब्रह्म तत्तवत: एक ही है। प्राणियों के देह मे रहनेवाला जीवात्मा भी वास्तव में माया से मुक्त होने पर आत्मा ही है। ब्रह्म सत्य है अर्थात नित्य, शाश्वत तत्त्व है और जगत् मिथ्या अर्थात स्वप्नवत् असत् एवं नश्वर है तथा जीवात्मा अपने शुद्ध रुप में आत्मा ही है। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवों ब्रह्मैव नापर:। संसार की व्यावहारिक सत्ता है, किन्तु तत्त्व-विचार से एक ब्रह्म की ही वास्तविक सत्ता अर्थात पारमार्थिक सत्ता है। ब्रह्म ही एक मात्र सत्य अर्थात शाश्वत तत्व है।

उपनिषदों को विशेष महत्त्व देकर प्रकाश में लाने का कार्य शक्कराचार्य (६५५ ई० से ६८८ ई० अथवा ७८८ ई० से ८२० ई०) ने किया। शक्कराचार्य ने प्रमुख ग्याहर उपनिषदों ब्रह्मसूत्र (जिसमें उपनिषदों की सारगर्भित चर्चा की गई है। ) तथा भगवद्गीता पर अद्भुत भाष्य लिखे और सारे भारत में अद्वैत-दर्शन की प्रस्थापना की। शक्कराचार्य ने बौद्ध आचार्यों को शास्त्रार्थ में युक्तिपूर्ण तर्कों द्वारा पराजित

१. " But if it seems strange to you that the old indian philosophers should have known more about the soul than Greek or medieval or modren philosphers, let us remember that however much the telescopes for observing the stars of heaven have been improved, the observatories of the soul have remained much the same ." Max Muller: Three lectures on the Vedanta Philosophy, London.

भारतीय दार्शनिक आत्मा के सम्बन्ध में यूनानी, मध्यकालीन अथवा आधुनिक दार्शनिको से अधिक जानते थे। दूरबीनों में कितना भी सुधार हुआ हो, आत्मा की वेधशाला तो वही है।

करके वैदिक संस्कृति को पुनरुज्जीवित किया। स्वामी विवेकानन्द (१२ जनवरी १८६३-४ जुलाई १९०२) ने भी वही कार्य विदेशों में जाकर किया। भारतीय संस्कृति को विश्व-संस्कृति के रुप में प्रतिष्ठित करने का अदभुत कार्य शक्कराचार्य स्वामी दयानन्द और स्वामी विवेकानन्द ने तर्क के आधार पर किया। कदाचित बुद्धि की प्रखरता एवं मौलिकता लगभग २० वर्ष की आयु से ४० वर्ष तक सविशेष रहती है, यद्यपि पर्याप्त पिरपक्वता लगभग ४० वर्ष से ५० वर्ष तक आ लेती है तथा तदनन्तर चिन्त्न एवं अभिव्यक्ति की क्षमता बढती रहती है। तर्क तथा अनुभव पर आधारित ज्ञान के शाश्वत प्रकाश से परिपूर्ण होने के कारण कालजयी उपनिषदों की उपेक्षा होना असंभव है, यद्यपि उनके सन्देश को आत्मसात् करने के लिए आध्यात्मिक साधना करना नितान्त आवश्यक है।

तात्विक दृष्टि से यह सब व्यक्त जगत ब्रह्म ही है। १ संसार इन्द्रियों के स्तर पर जैसा दीखता है, वह सब कोरा भ्रम नहीं है, माया (अथवा प्रकृति) है तथा चेतना अथवा ज्ञान के स्तर पर सर्वत्र ब्रह्म ही है। इन्द्रियों के स्तर पर यह जगत् यथार्थ है, आत्मा के स्तर पर यह मात्र माया है, असत् है।

शाश्वत केवल ब्रह्म् है। हम इन्द्रिय-स्तर के ज्ञान से ही चेतना-स्तर के ज्ञान तक पहुंचते हैं। ज्ञान सोपानात्मक हैं। ब्रह्म सत् अर्थात सत्य का भी सत्य है। २ पदार्थ और चेतना में मूलत: भेद नहीं है। वे परस्पर परिवर्तनीय हैं, यद्यपि अनुभव के स्तरों पर वे भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। यह जगत् एक ही चेतन-तत्त्व से ओतप्रोत है। ३ वही सर्वत्र है, वही इसका आधार है।

उपनिषदों की प्रमुख विशेषता सत्य की साहसपूर्ण खोज है तथा उसमें निर्भीकता, बौद्धिकता एवं तार्किकता का पुट है। संसार के किसी भी अन्य ज्ञानग्रन्थ में ऐसी मीमांसा तथा गंभीर अन्वेषण का तत्व नहीं हैं। संवाद में परस्पर आदर-सम्मान दिया जाता है तथा कहीं विचार को थोपा नहीं जाता। वादे वादे जायते तत्त्वबोध: अर्थात बौद्धिक स्तर पर संवार से तथ्य का निर्णय् होता है। व्यक्तिगत अनुभव एवं रहस्यमय आन्तरकि अनुभूति पर बल दिया जाता है, क्योकि स्वानुभव का प्रमाण

१. ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम्। (मुण्डक उप०, २.२.११)
इदं सर्वं यदयम् आत्मा। ( बृहद० उप०, २.४.६ )।

२. सत्यस्य सत्यम् (बृहद० उप०, २.१.२: २.३.६)
३. तदोतं च प्रोतं चेति (बृहद् ० उप०, ३.८.४)।

सर्वोपरि होता है। धर्म के तत्त्वों पर भी प्रश्न चिन्ह लगाकर, जिज्ञासा एवं सन्देह के समाधान का ऐसा प्रयत्न कहीं अन्यत्र देखा नहीं जाता। उपनिषदों के रोचक संवादों में सार्वभौमिक सत्यों का निरुपण किया गया है तथा वे किसी भी प्रचलित धर्म के अनुपालन में बाधक नहीं हो सकते। सत्य के अन्वेषकों एवं अनुसन्धाताओं के लिए उपनिषद अमृतमय सिद्ध होते हैं। उपनिषद शक्ति अभय उन्मुक्तता और आनन्द का सन्देश देते हैं। कठोपनिषद का एक मंत्र गर्जन करता है-उठो जागों श्रेष्ठ पुरुषों से बोध प्राप्त करो।'उत्त्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत' (कठ० उप०, १.३.१४)। उपनिषद ऐसे विश्वधर्म के आधार हैं, जहां प्रेम और सदभाव घृणा और शोषण का स्थान लेकर शान्ति की स्थापना कर देंगे तथा जहां आध्यात्मिक प्रकाश में जीना संभव हो सकेगा।

संसार के किसी धर्मग्रन्थ अथवा दर्शन-ग्रन्थ में परमात्मा का ऐसा तात्तिवक वर्णन उपलब्ध नहीं है, जैसा उपनिषदों में है। संसार में केवल उपनिषद ही आत्मा परमात्मा जगत और जीवन के रहस्यों की खोज में पूर्णत: संलग्न है। उनमें कुछ भी विवादास्पद नहीं है तथा मात्र ब्रह्मविद्या की ही चर्चा है। ब्रह्म और सच्चिदानन्द है। वह सत है नित्य एवं शाश्वत है तथा चैतन्यस्वरुप प्रकाशस्वरुप और आनन्दस्वरुप है। वह अमृतमय है, अनन्त और अनिर्वचनीय है। यद्यपि वह बुद्धिग्राह्य नहीं है, तथापि विशुद्ध अन्तरात्मा में उसकी दिव्यानुभूति अवश्य हो सकती है। उसकी प्राप्ति के लिए कही जाना नहीं है तथा वह अपने भीतर ही सुलभ है। वास्तव में हमारा जीवात्मा परमात्मा का अंश है तथा अपने शुद्ध रुप में वह स्वयं परमात्मा ही है। गुरु कहता है-'तत् त्वम् असि' और साधक अनुभव करता है-'अहं ब्रह्म अस्मि।' जीवन में इससे बढकर अन्य कोई उपलब्धि नहीं हो सकती। १

१. इह चेदवेदीथ सत्यमस्ति ने चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:।

भूतेषु भूतेषु विचित्य धीरा: प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति॥ (केन उप०, २.५)

-जिसने इस मानव देह में परब्रह्म को जान लिया, वह कुशल है। यदि इस देह में रहते हुए परब्रह्म को नहीं जाना, वह घोर विनाश है। बुद्धिमान लोग प्राणिमात्र में परब्रह्म को देखकरइस लोक से जाते हैं, वे अमर हो जाते हैं।

य वा एतदक्षंर गार्ग्यविदित्वाऽस्माल्लोकात् प्रैति स कृपणोऽथ।
य एतदक्षंर गार्गि विदित्वाऽस्माल्लोकात् प्रैति स ब्राह्मण: ॥(बृह० उप०, ३.८.१०)

-याज्ञवल्क्य ने कहा-हे गार्गि जो इस संसार से ब्रह्म को जाने बिना ही जाता है, वह कृपण (अभागा) है। जो इसे जानकर जाता है, वह ब्राह्मण है।

उपनिषदों की चर्चा करते हुए भगवद्गीता का उल्लेख करना अत्यन्त प्रासंगिक है। भगवद्गीता को भी उपनिषद की संज्ञा दी गई है। भगवद्गीता का कठोपनिषद् के साथ घनिष्ठ संबंध है। उसके अनेक स्थल कठोपनिषद पर आधारित है। यहां उसकी विस्तारपूर्वक् चर्चा करना अनभीष्ट है। संसार में जब मानव सब प्रकार की संकीर्णता, असहिष्णुता और कट्टरता को त्यागकर आध्यात्मिकता की ओर बढेगा और मानवमात्र में ही नहीं बल्कि पशु-पक्षियों, वृक्षों और समस्त वनस्पतियों में भी चैतन्य-तत्त्व का दर्शन करेगा, तब उपनिषदों का अध्यात्म् एक कल्याणकारी नई व्यवस्था का आधार बन जाएगा तथा मानव प्रेमपूर्ण सह-अस्तित्व का पाठ सीख सकेगा। भौतिक स्तर पर विषमता कभी समाप्त नहीं हो सकती तथा आध्यात्मिक स्तर पर ही सच्ची समता और शान्ति की स्थापना हो सकती है। उपनिषद वैदिक मनीषा का एक आलोक-स्तम्भ है जो सारे संसार को प्रकाश देता है।
जो मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों को परमात्मा में निरन्तर देखता है और सब प्राणियों में परमात्मा को देखता है, वह किसी से घृणा नहीं करता। जब परमात्मा को जानने पर सब प्राणी परमात्मस्वरुप ही दीखते हैं, तब एकत्व को देखनेवाले पुरुष के लिए मोह और शोक नहीं रहते तथा वह आनन्द से परिपूर्ण हो जाता है। १ भौतिक स्तर पर ही रहने से व्यक्ति एवं समा में कभी साम्य और शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती तथा आध्यात्मिकता को प्रमुख एवं भौतिकता को गौण मानकर और उनका समुचित समन्वय होने पर ही व्यक्ति एवं समाज के जीवन में शान्ति और सुख को प्रतिष्ठित किया जा सकता है।

उपासना की पद्धतियों की भिन्नता को स्वीकार करने पर सबका गन्तव्य एक ही परमात्मा को मानने पर परस्पर विवाद और संघर्ष समाप्त हो सकते हैं। सब धर्मों का साध्य एवं प्राप्य वही एक है। २ मार्ग अनेक हैं, लक्ष्य एक ही है।

१. यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥६॥

यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत:।
तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत:॥ ७॥ -ईशा० उप०

२. रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजुकुटिलनानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव। (शिवमहिम्न स्तोत्र)

-रुचियों के भेद के कारण सीधे, टेढ़े आदि अनेक पथों पर चलते हुए मनुष्यों का एक

तू ही लक्ष्य है, जैसे नदियों का लक्ष्य समुद्र होता है।

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भ्जाम्यहम॥ -गीता, ४.११

- जो परमात्मा को जैसे भी भजता है, परमात्मा उसे वैसे ही स्वीकार लेता है

भारतीय धर्मों के सन्दर्भ में यह कहना आवश्यक प्रतीत होता है कि चार्वाक-दर्शन जडतत्त्व के अतिरक्ति चेतनतत्त्व को स्वीकार नही करता, किन्तु, जैन-दर्शन और बौद्ध-दशर्न चेतनतत्त्व (आत्मतत्त्व) के अस्तित्व को अपने- अपने ढंग से स्वीकार करते है, यद्यपि वे अवैदिक हैं, और 'नास्तिको वेदनिन्दक:' के आधार पर उन्हें नास्तिक कहा जाता है। वे वेदों के द्वारा प्रतिपादित ब्रह्म अथवा ईश्वर की मान्यता को स्वीकार नहीं करते। ऐसा प्रतीत होता है कि उनके मूल प्रवक्ताओं (भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध) ने स्वयं ईश्वर के अस्तित्व को अमान्य नहीं किया तथा यज्ञों की पशु-हिंसा आदि दोषों का निषेध करने में उन्हे ईश्वर-तत्व की उपेक्षा करनी पड़ी। उन्होने 'वैदिकी हिंसा न भवति' के कुप्रचार कर उचित विरोध किया। उनके परवर्ती आचार्यो ने अपनी बुद्धि के अनुसार दर्शन- पद्धतियों और शास्त्रों की रचना कर दी। कालान्तर में भेद बढते गये और सम्प्रदायों का उदय हो गया। हमें प्रवर्तकों की जन-कल्याण की भवना को दृष्टिगत रखकर, उनके द्वारा चेतनतत्त्व की स्वीकृति के आधार पर परस्पर समन्वय एवं मौलिक एकता पर बल देना चाहिए। विघटनकारी शास्त्राथर् के युग बीत चुके हैं। बुद्ध की अहिंसा, करुणा और मैत्री सदैव प्रासंगिक रहेगी।

अनेक पाश्चात्य विद्वानों का स्पष्ट मत है कि भारत के समस्त धर्मों के मूल उपनिषदों से जुड़े हुए हैं। यह सर्वविदित है कि शापनहावर, डायसन, मेक्समूलर१, हक्सले, विल डुरान्ट२ आदि अगणित प्रख्यात विद्वानों ने उपनिषदों की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। भारत के भविष्य की उज्ज्वलता तथ विश्व-कल्याण की आशा उपनिष्दों पर आधारित है। उनमें सार्वभौमिकता है तथा कहीं संकीर्णता एवं कट्टरता का पुट नहीं है। इस तथ्य को जान लेने और उपनिषदों के प्रकाश का प्रसार कर लेने मे ही कृतार्थता है।

१. " It is surely astounding that such a system as the Vendanta should have been slowly elaborated by the indefatigable and intrepid thinkers of India thousands of years ago, a system that even now makes us feel giddy, as in mounting the last steps of the swaying spire of a Gothic Cathedral. None of our philosophers, not expecting Heraclitus,Plato , Kant or Hegel has ventured to erect such a spire never frightened by storms or lightthings. Stone after regular succession after once the frist step has been made, after once it has been clearly seen that in the beginning there can have been but one, as there will be but one in the end, Whether We call it Atman or Brahman.” (Six Systems of Indian Philosophy-Max-Muller)

कठोपनिषद् में अनेक स्थलों पर अनेक प्रकार से मृत्यु के भय को त्यागकर अर्थात् समस्त भयों को त्यागकर, अजेय एवं अभय होने का आह्वान किया गया है। उत्तिष्ठत जाग्रत- उठो, जागो।

कठोपनिषद् का नियमित पाठ निश्चय ही कल्याण के मार्ग को प्रशस्त कर देता है।

यह आश्चर्यजनक है कि यूरोप के महान चिन्तकों ने ऐसा दर्शन नहीं दिया, जैसा भारत ने। भारत के वेदान्त का एक ही आधार है, एक ही शिखर है-आत्मा अथवा ब्रह्मन्।

कोई टिप्पणी नहीं: